काफी वक्त के बाद जाने-माने डायरेक्टर, राइटर और एक्टर सतीश कौशिक एक ऐसी कहानी लेकर आए हैं, जो एक आम इंसान की लाचारी से भरी है। इंस गंभीर मुद्दे की साख बचाते हुए सतीश कौशिक ने इसे बड़े ही मजेदार ढ़ंग से पेश किया है।
फिल्म की कहानी भरत लाल (पंकज त्रिपाठी) के इर्द गिर्द बुनी गई है। एक आम आदमी जो बैंड बाजे का काम करता है। पर उसके टैलेंट को देखते हुए उसकी पत्नी रुकमणि (मोनल गज्जर) चाहती है कि उन्हें अपने काम को और बढ़ाना चाहिए, जिसके लिए वे बैंक के पास जाते हैं और लोन की अपील करते हैं। यहीं से कहानी अपने असली रूप में आती है। अब पंकज को लोन तो नहीं मिलता, पर उनके जीवन में ऐसा मोड़ आता है कि वे जिंदा होते हुए भी कागज में मरे मिलते हैं। अब खुद को जिंदा साबित करने के लिए पंकज कई तरह के उपाय करते हैं, पर सिस्टम के रावण की तरह अलग अलग सिर उसको और ज्यादा उलझा देते हैं। इस बीच सिस्टम की भी परत दर परत पोल खुलती है। अब क्या भरत अपने आप को जिंदा साबित कर पाएगा, या हमेशा के लिए गुम हो जाएगा, यह जानने के लिए आपको फिल्म देखनी होगी।
पंकज त्रिपाठी कम ही फिल्मों में लीड रोल में नजर आए हैं, पर हां उन्होंने अपनी एक्टिंग की छाप छोड़ी है। इसी तरह 'कागज' में उन्होंने अपनी एक्टिंग से दिल जीत लिया है। जिस तरह से उन्होंने खुद को किरदार में ढाला है, आपको एक पल के लिए भी नहीं लगेगा कि ये 80 के दशक के भरत लाल नहीं हैं। इसके अलावा मोनल गज्जर और सतीश कौशिक भी अपने किरदार में बखूबी सफल नजर आए हैं।
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सतीश कौशिक ने एक गंभीर मुद्दे को चाशनी में डुबोकर दर्शकों के सामने पेश किया है। उन्होंने 80 के दशक को दर्शाने के लिए जिस तरह से लोकेशन्स का चुनाव किया है, वह उम्दा है। फिल्म में उन्होंने प्रशासन की जो अपने अंदाज में पोल खोली है वह उम्दा है। फिल्म के प्लॉट के हिसाब से फिल्म में म्यूजिक और गाने भी कमाल के हैं, खासकर सइयां सौतनों से भरे...आइटम सॉन्ग धूम मचाता है।
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80 के दशक में सारे सरकारी काम-काज कागजों पर हुआ करते थे, पर आज ज्यादातर सरकारी काम काज कम्प्यूटर के जरिए होते हैं। इसलिए हो सकता है कि आज की पीढ़ी फिल्म से खुद को कनेक्ट न कर पाए। पर पंकज त्रिपाठी की एक्टिंग और फिल्म की कहानी के लिए आप इस फिल्म को देख सकते हैं।
रेटिंग्स: 3.5/5