केंद्र और राज्यों में आरटीआई के नियमों की भिन्नता से कानून पर संकट मंडरा रहा है- अनिल गलगली

पारदर्शिता और भ्रष्टाचार मुक्त कामकाज की प्रक्रिया को तेज करने के लिए सूचना का अधिकार (right to information) अस्तित्व में आया। आज, 15 साल बाद आरटीआई (RTI) कानून के रास्ते में अभी भी कई बाधाएं हैं। कानून को मजबूत किया जाना चाहिए और लोगों को हर सही जानकारी समय पर मिलनी चाहिए। कोई भी राजनीतिक दल या सत्ताधारी दल इसके लिए किसी भी तरह का प्रयास नहीं कर रहा है। एक मायने में, सूचना का अधिकार अधिनियम यानी आरटीआई अधिनियम का कोई संरक्षक नहीं है। केंद्र और राज्यों में आरटीआई के नियमों की भिन्नता से इस क्रांतिकारी कानून पर संकट मंडरा रहा है।

12 अक्टूबर, 2005 को भारत में अस्तित्व में आए सूचना के अधिकार कानून ने देश के नागरिकों को एक मायने से वास्तविक स्वतंत्रता दी। पिछले 15 वर्षों में एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरा है, जब भ्रष्टाचार, अनियमितताओं और धांधलियों से युक्त घोटालों को सूचना के अधिकार अधिनियम का उपयोग करते हुए प्रकाश में लाया गया हो और मीडिया ने इस मामले पर ध्यान न दिया हो। इस आरटीआई कानून से देश में सबसे बड़े घोटाले सामने आए, सरकारें भी बदल गई। वर्ष 2005 से पहले, सूचना का अधिकार अधिनियम महाराष्ट्र में मौजूद था, लेकिन इसकी कुछ सीमाएँ थीं। जब सूचना के अधिकार कानून ने एक केंद्रीय कानून का रूप ले लिया, तो सूचना के अधिकार कानून को सही मायने में मजबूत किया गया और इससे जानकारी का प्रयोजन को रदद् कर दिया गया।

सूचना का अधिकार अधिनियम वास्तव में क्या है? इसकी परिभाषा और आम जनता को जानकारी प्रदान करने की प्रक्रिया का समग्र नियम हर एक राज्य और प्रत्येक सार्वजनिक प्राधिकरण के तहत केंद्रीय सार्वजनिक सूचना अधिकारी का भिन्न है। केंद्रीय सूचना का अधिकार हर एक राज्य में, राज्य सरकार को अपनी सुविधा के अनुसार नियम बनाने का अधिकार प्रदान करता है। इसका शुल्क और नियम हर राज्य में भिन्न है। इसलिए आरटीआई अधिनियम को राज्य की सुविधा के अनुकूल बनाया गया है, इस प्रकार यह मूल कानून के उद्देश्य को कम करता है।

महाराष्ट्र (Maharashtra) राज्य की बात करते है तो आज महाविकास आघाडी (MVA) सरकार नासिक, पुणे और नागपुर में राज्य सूचना आयुक्तों की नियुक्ति नहीं करती है। परिणामस्वरूप, वर्तमान में महाराष्ट्र में लगभग 52,000 दूसरी अपील के मामले लंबित हैं, जबकि शिकायतों की संख्या 7,000 से अधिक है। मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री और विपक्ष के नेता वाली एक समिति सूचना आयुक्त का चयन करती है और राज्यपाल से नाम की सिफारिश करती है लेकिन दुर्भाग्य से महाविकास आघाडी सरकार को इसमें कोई भी दिलचस्पी नहीं है। इसकी जानकारी लेकर खुद मुख्यमंत्री उद्धव बाला साहेब ठाकरे (Uddhav thackeray) को इसका खुलासा करना उचित होगा। क्योंकि इसके पहले की सरकार ने जिन-जिन मुख्य राज्य सूचना आयुक्त या राज्य सूचना आयुक्त को नियुक्त किया गया हैं, उनकी नियुक्तियों को लेकर हमेशा विवाद रहा हैं। अब ठाकरे सरकार किन समर्थकों को इन पदों पर नियुक्त करेगी?  ऐसा प्रश्न स्वाभाविक रूप से पूछा जा सकता है।

आज, 15 साल बाद, सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत अपील की संख्या क्यों बढ़ रही है? यह यक्ष प्रश्न है। सूचना का अधिकार अधिनियम और नागरिकों के बीच में सार्वजनिक प्राधिकरण महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। महाराष्ट्र राज्य सूचना आयोग की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार सार्वजनिक प्राधिकरणों में 80 प्रतिशत से अधिक सार्वजनिक सूचना अधिकारियों को यह जानकारी नहीं होती है कि आखिर, क्या जानकारी देना है या नहीं देना है। इसके अलावा, कोई भी सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 की धारा 4 का अनुपालन नहीं कर रहा है और न ही मुख्य सूचना आयुक्त या देश के प्रधानमंत्री (prime minister) या राज्य के मुख्यमंत्री इसे अमल में लाने के लिए जोर दे रहे है। इसके चलते बार बार वही प्रश्नों और सूचनाओं को मांगा जा रहा है जो अधिनियम की धारा 4 के अनुसार वेबसाइट पर आसानी से उपलब्ध कराई जा सकती हैं।

केंद्र और राज्य में विभिन्न नियमों और प्रक्रियाओं के कारण, सूचना का अधिकार अधिनियम संकट में है। देश के प्रमुख राजनीतिक दल इस कानून के दायरे में आने के लिए कतई तैयार नही  हैं और येनकेन के आरटीआई की कानून की धार को कुंद करने की कोशिश कर रहे है। वर्तमान में, कोई भी राजनीतिक दल हो या सत्ता में बैठी सरकार हो, वे सूचना का अधिकार कानून को दूरी रखकर नजदीकियां बनाने की कोशिश में है।

- RTI एक्टिविस्ट अनिल गलगली (यह लेखक के अपने विचार हैं।)

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