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राजनीति में भाषा का गिरना और सत्ता के लालच का बढ़ना !

राजनीतिक भाषा को नीचे स्तर पर ले जाना ना ही सिर्फ देश की राजनीति के लिए एक खराब आज और कल होगा बल्की देश की छवि को भी इससे काफी गहरा धक्का लगता है।

राजनीति में भाषा का गिरना और सत्ता के लालच का बढ़ना !
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कहते है राजनीति में कोई हमेशा के लिए दोस्त नहीं होता और कोई हमेशा के लिए दुश्मन नहीं होता। लेकिन पिछलें कुछ दिनों में इसी राजनीति में राजनीति गरिमा को भी ताड़ ताड़ कर दिया गया है। ऐसा नहीं है की देश ने पहली बार राजनीति में भाषा की इतनी गिरी हुई मर्यादा देखी है , लेकिन अपना भूत से कोई भी सीख ना लेते हुए राजनेताओं का बार बार उसी तरह से राजनीतिक भाषा को नीचे स्तर पर ले जाना ना ही सिर्फ देश की राजनीति के लिए एक खराब आज और कल होगा बल्की देश की छवि को भी इससे काफी गहरा धक्का लगता है। 


कोई भी पार्टी अछूती नहीं 

भारतीय राजनीति में आप किसी भी पार्टी के लिए यह नहीं कह सकते की इस पार्टी ने भाषा की गरिमा को बनाए रखा है , लगभग -लगभग समय पड़ने पर और चुनाव के समय देश की सभी पार्टियों ने भाषा की गिरावट का नये -नये आयाम लिखे है। अपने वोट बैंक को अपने साथ जोड़े रखने के लिए और सामनेवाले पार्टियों को कमजोर दिखाने के लिए राजनेता कई बार ऐसे शब्दों का उपयोग कर जाते है जो भले ही सामनेवाली पार्टी को नुकसान पहुचाये या नहीं लेकिन उनकी पार्टी की छवि में कुछ समय के लिए सवाल खड़े हो जाते है। हालांकी कुछ दिनों तक ऐसे शब्दो की मीडिया और अन्य जगहों पर आलोचना होती है तो कई लोग समर्थन भी करते है कहते है की  फलाना ने बोला है तो हम क्यो नहीं बोल सकते? हालांकी उन्ही के पार्टी के कुछ नेता ऐसे भी होते है जो ऐसी भाषाओं को बचाव तो नहीं करते लेकिन जिस नेता ने राजनीति भाषा को और निन्म करने के लिए कुछ शब्दों को इस्तेमाल किया है उनका विरोध भी नहीं करते।  


'भूत' से भी नहीं सिखते सबक

हमारे राजनेता शब्दों की जादूगरी में इतने माहिर हो गए है की वो कई बार अपनी द्वारा ही की गई गलतियों से कोई सबक नहीं लेते। 'भूत' यानी की भूतकाल में भी दिये गए अपनों बयानों से नेता कुछ नहीं सिखते । यहां किसी एक नेता के बारे में बात करना बेईमानी होगी ,अगर आप इंटरनेट चलाना जानते है तो गुगल पर टाइप कर किजिये नेताओं के आप्पतिजनक बयान, कई नेताओं द्वारा किये गए निम्न शब्दों की पूरी जानकारी  आपको इंटरनेट पर मिल जाएगी, लेकिन क्या नेता कभी भूत में दिये गए अपने बयानों को एक बार फिर से रिवाइंड करके देखते होगे? क्यो वो इस बात को समझते होंगे की उन्होने किस शब्द का इस्तेमाल अपने भाषण या फिर किसी रैली में किया है?

क्या उनको एहसास होता होगा की जिस शब्द का इस्तेमाल किया गया है वह राजनीति में भाषा के स्तर को और कितना नीचे गिरा सकता हैआमतौर पर राजनेता भले ही पढ़े लिखे ना हो लेकिन वह समाज के बीच में रहते है , समाज के बारे में उन्हे आम लोगों का काफी अच्छा और गहना ज्ञान होता है , नेता को समाज में एक समझदार व्यक्ति के तौर पर देखा जाता है , लेकिन फिर इन्ही नेताओं की समझदारी को क्या हो जाता है जब वह राजनीति में ऐसी भाषाओं का इस्तेमाल करता है?


आनेवाले पिढ़ियों पर असर  

राजनीति कोई गंदी चीज नहीं है और ना ही राजनीति करनेवाले। अगर भारत के इतिहास को आप खोलकर देखे तो आपको पता चल जाएगा की  हमारे इतिहास में कई ऐसे राजनीतिज्ञ थे जिन्हे आज भी हम एक आदर्श के रुप में मानते है , चानक्य इसका सबसे बड़ा उदाहगरण है। चाणक्य राजनीति के गुरु कहलाते है, उन्होने जिवनी का एक बड़ा हिस्सा राजनीति में गुजार दिया , लेकिन क्या आज का युवा राजनीति को किसी आदर्श के रुप में लेता है? आज का युवा राजनीति का नाम आते ही अपने आप को उससे बचाने क्यो लगता है? क्या राजनीति की परिभाषा इतनी बदल गई है की कभी हम राजनीति में आनेवालों को सम्मान के नजर से देखते है लेकिन आज अगर कोई राजनीति में आने की बात कहता है तो हम बचते दिखते है। 

 क्या इसके लिए हमारे नेता जिम्मेदार नहीं है? क्या इसके लिए आप और हम जिम्मेदार नहीं है? हम क्यो ऐसे लोगों को चुनकर भेजते है जिन्होने इस राजनीति शब्द को महज वोट बैंक के जरिये सत्ता पाने का जरिया बना लिया है? यही सवाल नेताओं से भी की क्यो सत्ता के लालच में राजनीति को इस हद तक खराब कर दिया जा रहा  है? लोगों की सेवा करने के लिए नेता बनकर सत्ता पाना जरुरी नही है बाबा आम्टे, स्वामी विवेकानंद दिवंगत वैज्ञानिक एपीजे अब्दूल कलाम जैसे कई लोग है जिन्होने समाज सेवा की और अपने आप को समाज को समर्पित कर दिया।  लेकिन इस समाज को चलाने के लिए जिस कानून , व्यवस्था और बुनियादी जरुरतों की आवश्यकता होती है उसके लिए लोग नेता को चुनते यानी की अपने जनप्रतिनिधियों को, नेताओं ने इसकी पूरी परिभाषा ही बदल दी है। 

आज के दौर में बहुत कम जनप्रतिनिधी होते है जो बेहद ही सादगी में रहकर समाज के लिए काम करते है , लेकिन जनप्रतिनिधियों को एक बड़ा तबका ऐसा भी है जो समाज के प्रति अपनी इन जिम्मेदारियों को नहीं समझता। उसके लिए तो जनप्रतिनिधी होने का मतलब सिर्फ और सिर्फ अपने लिए अपार धन दौलत जमा कर लेना है और लोगों को खुश करने के लिए कुछ काम कर देना और फिर बैनर लगाकर उनकी वाहवाही करना। वास्तविकता में ये राजनीति नहीं और ना ही सच्चा जनप्रतिनिधी।  


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