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'गांव में भुखमरी तो शहर में कोरोना जीने नहीं दे रहा है, गांव से मुंबई लौटे प्रवासी मजदूरों की आपबीती

लोगों की स्थिति को देखते हुए अभी भी यह कहा जा सकता है कि इन गरीब प्रवासी मजदूरों की स्थिति ठीक होने के बजाय बद से बदतर हो गई है। कई लोग तो फिर वापस अपने गांव लौटना चाहते हैं।

'गांव में भुखमरी तो शहर में कोरोना जीने नहीं दे रहा है, गांव से मुंबई लौटे प्रवासी मजदूरों की आपबीती
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हंसती खेलती, दौड़ती भागती मुंबई में जब कोरोना वायरस महामारी ने दस्तक दी तो लोगों में इससे लड़ने का जज्बा कम, इससे डरने का ख़ौफ ज्यादा दिखा। कोरोना वायरस के कारण सरकार ने लॉकडाउन लगा दिया, जिससे एक तरह से मुंबईकरों की जिंदगी ठप्प पड़ गई। इसका सबसे अधिक प्रभाव प्रवासी कामगारों पर पड़ा, जो हजारों कि.मी दूर अपना घर छोड़ कर मुंबई में दो वक्त की रोटी कमाने अपना घर परिवार चलाने आए थे। रोज खाने कमाने वाले प्रवासी कामगारों के सामने अचानक इस तरह की स्थिति पैदा होने से उनके सामने भुखमरी की नोबत आ गई। सरकार की तरफ से भी अपेक्षित सहयोग न मिलने के कारण लोगों को अपने गृहनगर जाने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा।

आजादी के बाद से देश ने मुंबई- महाराष्ट्र से उत्तरप्रदेश-बिहार के लिए जाते ये प्रवासी कामगारों के सबसे बड़ा पलायन था। हालांकि इनके अंदर ये उम्मीद भी थी कि, जो मुंबई उन्हें भूखे रहने पर मजबूर कर रही है, कम से कम गांव में दो वक्त की रोटी नसीब तो होगी। लेकिन जिस तरह से लोग अपने गांव गए उसे दुनिया ने देखा, हजारों लोगों की भीड़ सड़कों और पैदल ही चली जा रही थी। जिनमें महिला, पुरुष, बूढ़े और बच्चे सभी शामिल थे। कितने लोगों की तो रास्ते मे ही मौत हो गई।

किसी तरह से गांव में पहुंचने के बाद वहां की हकीकत का सामना हुआ। किसी ने इन गरीब प्रवासी मजदूरों से बात तक नहीं की, सम्मान देने की बड़ी दूर की बात। कितने लोगों को तो घर मे घूसने नहीं दिया गया, इसी गम के चक्कर में तो वाराणसी के एक व्यक्ति ने तो अपने परिवार के सामने ही गंगा नदी में कूद कर जान दे दी।

कुछ महीने गांव में गुजारा हुआ लेकिन फिर वहां भी पेट पालने की समस्या आने लगी। कोई रोजगार का साधन नहीं होने के कारण वहां भी भुखमरी की गंभीर समस्या सामने खड़ी होने लगी।

यह देखते हुए कुछ प्रवासियों ने दोबारा मुंबई लौटने का विचार किया। अब ऐसे हजारों प्रवासी मजदूर हैं जो फिर से मुंबई लौट आए हैं, कितने लोग फैमिली लेकर आए हैं तो काफी लोग फैमिली गांव में छोड़कर अकेले ही आए हैं। 

इनका कहना है कि, कोरोना से हम और हमारा परिवार मरे न मरे लेकिन भुखमरी से पहले ही मर जायेगा।

मुंबई के कुर्ला इलाके में रहने वाले टैक्सी ड्राइवर नईमुद्दीन का कहना है कि, सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन इस कोरोना ने उनकी आर्थिक स्थिति बद से बदतर कर दी। नईमुद्दीन आगे कहते हैं कि, उनकी बेटी की शादी अप्रैल महीने में थी, और वे बीसी और सोसायटी के पैसे जोड़ जोड़ कर यह शादी करना चाहते थे, लेकिन मार्च महीने में लॉकडाउन के कारण उनका काम बंद हो गया। बीसी और सोसायटी भी बंद हो गई। मजबूरी में शादी कैंसिल करनी पड़ी। परिवार सहित अपने गांव आजमगढ़ भागना पड़ा, लेकिन वहां भी काम नहीं मिलने के कारण अब अकेले ही मुंबई फिर वापस आया हूँ। ऊपर से घर के मालिक का किराया भी बढ़ता जा रहा है। वे कहते हैं कि अब फिर से टैक्सी चला रहा हूँ, जहां पहले दिन भर में 600 से 700 रुपये कमा लेता था तो वहीं अब 200 रुपये मिलना भी मुश्किल है। बस अल्ला से यही दुआ करता हूँ कि किसी तरह से यह सब ठीक हो जाए।

दो दिन पहले अपने गांव से मुंबई आए ऑटो चालक कृपाशंकर यादव कहते हैं कि, लॉकडाउन और कोरोना के चलते मुंबई से पलायन करने वाले कई ऑटो चालकों में से वे भी एक थे। उन्होंने बताया कि बड़ी मुश्किल से अपने गांव जौनपुर पहुंचा। वहां परिवार सहित 21 दिन होम क्वारंटाइन होना पड़ा।

वहां हमारे साथ बड़ा बुरा सलूक किया गया, लोग बात नहीं करते थे। अधिक खेती बाड़ी भी नहीं है कि उसी से गुजारा हो जाए, परिवार बड़ा है, दो भाई दिल्ली में रहते हैं वे भी अपने परिवार के साथ गांव आ गए थे। बड़ी समस्या पैदा होने लगी, पास में जो कुछ भी जमा पूंजी थी वह भी खत्म हो गयी थी। किसी तरह से दो महीना बीताने के बाद फिर परिवार लेकर मुंबई आ गया। पत्नी का कहना है जो होगा देखा जाएगा, सब कोई मिल कर रहेंगे और मुश्किलों का सामना करेंगे।

यादव कहते हैं कि, किसी तरह से दाल-रोटी चल जा रही है जबकि गांव जाने पर वो भी मुश्किल हो गया था। वे कहते हैं कि, यहां सरकार हमें लॉकडाउन के दौरान सिर्फ चावल और गेहूं ही दे रही है, राशनवाला दाल नहीं देता, अब कोई चावल और रोटी कैसे खायेगा। खाने के लिए दाल, नमक, मसाला चाहिए कि नहीं, सब्जी के भाव आसमान से भी ऊंचे हैं, बच्चे दाल नहीं खाते उन्हें सब्जी चाहिये लेकिन टमाटर के दाम सुन कर ही कालेज कांप जाता है। वे आगे कहते हैं अभी ऑटो नहीं मिला है, ढूंढ रहा हूँ, किसी का मिलेगा तो बचत पर चलाऊंगा।

दर्जी का काम करने वाले इमरान अली इलाहाबाद के रहने वाले हैं। घर मे 2 सिलाई मशीन है जिसमें उनकी पत्नी भी इस काम मे उनका हाथ बंटाती है। उन्होंने जैसे तैसे पैसा जोड़ कर बच्चे के कॉलेज में एडमिशन के लिए पैसा बचाया था, लेकिन यह कोरोना तो उन पर कहर बन कर टूट पड़ा। मई महीने में इमरान की तबियत खराब हो गई, जांच कराया गया तो वे कोरोना पॉजिटिव निकले। घर मे हड़कंप मच गया। प्राइवेट अस्पताल में दाखिल कराया गया तो एक 20 से 22 दिन एडमिट रहने के बाद डिस्चार्ज कर दिया गया, लेकिन इस दौरान डेढ़ लाख रुपये खर्च हो गए। बेटे की पढ़ाई का सपना टूट चुका था, लेकिन इमरान के सही सलामत होने की खुशी सभी को थी। लॉकडाउन के कारण काम भी मिलना बंद हो गया। सभी गांव चले गए, लेकिन एक महीना जैसे तैसे गुजारा करने के बाद उनका बेटा अपने मामा के साथ फिर मुंबई आ गया। लेकिन इस बार उसकी उम्मीदें टूट चुकी हैं, अब उसे नहीं पढ़ना है बल्कि काम करके पैसे बचाना है ताकि घर को चला सके। अब वह भी कोई काम की तलाश में है।

मुंबई के ओशीवारा में बढ़ई का काम करने वाले रफीक का भी काम लॉकडाउन की वजह से बंद हो गया था। उनकी कंपनी में 8 लोग काम करते थे, सभी रातों रात बेरोजगार हो गए। आखिर उन्हें भी उनके गांव बहराइच जाना पड़ा।

वे कहते हैं कि मैं गांव गया तो मुझे न पैसे मिले और न ही मुझे राशन दिया गया। वे यूपी सरकार के भरवाए गए एक फॉर्म को दिखाते हुए कहते हैं कि जब वे अपने गांव पहुंचे, तो वहां उनका कोरोना टेस्ट किया गया और उनसे एक फॉर्म भरवाया गया। उन्हें बताया गया कि उनके खाते में एक हजार रुपए डाला जाएगा और कुछ राशन दिया जाएगा। लेकिन न तो उन्हे रुपए मिले और न ही राशन। एक महीने में ही वे मुंबई की तरह गांव में भी खाने-पीने के लिए परेशान होने लगे।

आखिर घर पर बढ़ता आर्थिक दबाव और अकेले खाने कमाने वाले रफीक 2 महीने बाद फिर से मुंबई आ गए। अब वे सिक्युरिटी गार्ड का काम करते हैं। पहले वे महीना में ओवरटाइम करके 20 हजार कमा लेते थे, लेकिन अब उन्हें महीना 10 हजार पर काम करना पड़ रहा है।

वे बताते हैं कि आस-पास की बस्ती में कई कोरोना संक्रमित मरीज पाए गए हैं। जिसकी वजह से मुंबई लौटने पर वे भीतर ही भीतर डरे हुए हैं। मगर गांव में बेरोजगारी व भूखमरी से मरने से अच्छा है कि मुंबई में मेहनत करें और जो भी संकट आए उसका मुकाबला किया जाए।

मुंबई के निकट मीरा रोड में सब्जी का ठेला लगाने वाले रामबली गुप्ता भी इस समय की मार खाए पीड़ितों में से एक हैं। यहां मीरा रोड में वे सब्जी बेच कर महीना 25 से 30 हजार रुपए कमा लेते थे, लेकिन मुंबई और मीरा रोड में तेजी से बढ़ते कोरोना के केस को देखते हुए उन्होंने 50 हजार में एक गाड़ी बुक की और गांव चले गए। करीब 2 महीना गांव में रहने के बाद वे अकेले आये लेकिन स्थिति बद से बदतर होती देख अब वे फिर से डर गए हैं, अब वे फिर गांव जाना चाहते हैं। लेकिन उन्हें इस बात का डर है कि कहीं उनका जमा जमाया धंदा टूट न जाए।

इन सब लोगों की स्थिति को देखते हुए अभी भी यह कहा जा सकता है कि इन गरीब प्रवासी मजदूरों की स्थिति ठीक होने के बजाय बद से बदतर हो गई है। कई लोग तो फिर वापस अपने गांव लौटना चाहते हैं।

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