जितिया व्रत जिसे जिउतिया भी कहा जाता है, वंश वृद्धि व संतान की लंबी आयु के लिए महिलाएं जिउतिया का निर्जला व्रत रखती हैं। हिंदू धर्म के लोगों के लिए इस व्रत का खास महत्व है। जितिया व्रत पूरे तीन दिन तक चलता है। व्रत के दूसरे दिन व्रत रखने वाली महिला पूरे दिन और पूरी रात जल की एक बूंद भी ग्रहण नहीं करती है। यह व्रत उत्तर भारत विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रचलित है। यही नहीं इसे पड़ोसी देश नेपाल में भी महिलाएं बढ़-चढ़ कर इस व्रत को पूरा करती हैं।
तिथि और शुभ मुहूर्त:
इसे लेकर विद्वानजन एकमत नहीं है। जिस कारण व्रत 2 दिनों का हो गया है। कहीं इसे 21 सितंबर को बताया गया है तो कहीं इसे 22 सितंबर को।
अष्टमी तिथि प्रारंभ: 21 सितंबर 2019 को रात 08 बजकर 21 मिनट से
अष्टमी तिथि समाप्त: 22 सितंबर 2018 को रात 07 बजकर 50 मिनट तक
पूजा विधि:
जितिया में तीन दिन तक उपवास किया जाता है:
पहला दिन: पहले दिन नहाय-खाय से शुरू होता है। इस दिन महिलाएं नहाने के बाद एक बार भोजन करती हैं और फिर दिन भर कुछ नहीं खाती हैं।
दूसरा दिन: दूसरे दिन को खुर जितिया कहा जाता है. यही व्रत का विशेष व मुख्य दिन है जो कि अष्टमी को पड़ता है। इस दिन महिलाएं दिन रात निर्जला रहती हैं।
तीसरा दिन: व्रत के अंतिम दिन यानी तीसरे दिन पारण किया जाता है। इस दिन व्रत का पारण करने के बाद भोजन ग्रहण किया जाता है।
व्रत कथा:
नर्मदा नदी के किनारे एक स्थान पर बरगद का पेड़ था. उस पेड़ पर एक चील रहती थी। उसे पेड़ के नीचे एक सियारिन भी रहती थी। दोनों पक्की सहेलियां थीं।
दोनों ने कुछ महिलाओं को देखकर जिउतिया व्रत रखने का निश्चय लिया लेकिन जिस दिन दोनों को व्रत रखना था, उसी दिन शहर के एक बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गई और उसका दाह संस्कार भी बरगद के पेड़ के पास किया गया। दाह संस्कार के बाद सियारिन अपनी भूख पर काबू नहीं रख पाई उसने शव को खा लिया, जिससे सियारिन का व्रत टूट गया। लेकिन चील ने संयम रखा और विधि विधान से तीन दिन तक व्रत पूरा किया।
फिर अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने एक ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया। उनके पिता का नाम भास्कर था। चील, बड़ी बहन बनी और उसका नाम शीलवती रखा गया। शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई, जबकि सियारिन छोटी बहन के रूप में जन्मी और उसका नाम कपुरावती रखा गया। उसकी शादी उस नगर के राजा मलायकेतु से हुई। भगवान जीऊतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए। लेकिन कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे।
कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए। वे सभी राजा के दरबार में काम करने लगे। कपुरावती के मन में उन्हें देख इर्ष्या की भावना आ गयी। उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर कटवा दिए। उन्हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिया और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भेज दिया।
यह देख भगवान जीऊत वाहन ने मिट्टी से सातों भाइयों के सर बनाए और सभी के सिर को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया। इससे उनमें जान आ गई। सातों युवक जिंदा हो गए और घर लौट आए। जो कटे सर रानी ने भेजे थे वे फल बन गए। दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से सूचना पाने को व्याकुल थी। जब काफी देर सूचना नहीं आई तो कपुरावती स्वयं बड़ी बहन के घर गयी। वहां सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गयी।
जब उसे होश आया तो बहन को उसने सारी बात बताई। अब उसे अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था। भगवान जीऊत वाहन की कृपा से शीलवती को पूर्व जन्म की बातें याद आ गईं। वह कपुरावती को लेकर उसी बरगद के पेड़ के पास गयी और उसे सारी बातें बताईं।
कपुरावती बेहोश हो गई और मर गई। जब राजा को इसकी खबर मिली तो उन्होंने उसी जगह पर जाकर बरगद के पेड़ के नीचे कपुरावती का दाह-संस्कार कर दिया।