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विद्युत जामवाल में है दम, कमांडो 2 की कहानी 'बेदम'


विद्युत जामवाल में है दम, कमांडो 2 की कहानी 'बेदम'
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मुंबई - रोमांस इसके अलावा, बॉलीवुड में एक्शन फिल्मों को भी ज़्यादा पसंद करा जाता है और वह सबसे लोकप्रिय शैलियों में से एक है, लेकिन अफसोस की बात है कि बहुत कम कलाकार और फिल्म निर्माता हैं जो स्टंट को बखूभी दिखने की क्षमता रखते हैं। उन कुछ जोड़ियों में से एक जोड़ी है विद्युत जामवाल और विपुल शाह की, जिन्होंने 2013 की एक्शन थ्रिलर कमांडो में जादू फैलाया था और अब फिर एक बार वापस आये हैं कमांडो की दूसरी कड़ी के साथ, लेकिन अफसोस वही जादू नहीं दिखा पाए ।

फिल्म शुरू होती है एक एक्शन दृश्य से जहां कप्तान करणवीर सिंह डोगरा (विद्युत जामवाल) खुशी से और आसानी के साथ कुछ लोगों से लड़ता है और विक्की चड्डा नाम के एक शक्स की जानकारी उगलवाता है जो भ्रष्ट भारतीयों के पैसे की सुरक्षा की ज़िम्मेदार है। दूसरी ओर है भारतीय मंत्रालय के अफसर जो नोटबंदी का फायदेमंद परिणाम दिखाने के लिए बेताब है। इस बात को साबित करने के लिए चड्ढा की गिरफ्तारी की योजना बनाते हैं, लेकिन जल्द ही किसी कारण योजना में परिवर्तन लाते हैं। गृह मंत्री (शेफाली शाह) चड्ढा की गिरफ्तारी के लिए एक टीम का निर्माण करती है जिनमे चार सदस्य शामिल होते हैं - बख्तावर (फ्रेडी दारुवाला) - एक पुलिस अधिकारी, एक भ्रष्ट पुलिस अफसर भावना रेड्डी (अदा शर्मा), एक हैकर - जफर, और एक पर्यवेक्षक। फिल्म के हीरो - ईमानदार करण अपने ख़ास तरीके से टीम का हिस्सा बन जाता है। सरकारी अधिकारियों के अनुसार यह टीम से उम्मीद रखी जाती है की वे सब पैसे वापस लाने में कामयाब होंगे और वह पैसा देश की भलाई के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। मिशन के लिए टीम ताइवान और मलेशिया रवाना होती है। कैसे वे चड्ढा को भारत वापस लाते हैं? टीम कैसी मुसीबतों का सामना करती है? इन सवालों के जवाब कमांडो 2 की कहानी में ही मिलेगा।

पिछली फिल्म जो कुछ साल पहले रिलीज़ हुई थी, इस साल से काफी बेहतर थी। कमांडो 2 में कहानी का एक बड़ा हिस्सा नोटबंदी पर निर्भर है। फिल्म देखने के बाद ऐसे लगता है जैसे इस कहानी का मकसद नोटबंदी, उसके प्रयासों और सरकार के इस विचार को फलदायक दिखाना हो सकता है। फिल्म देखने के बाद यह भी महसूस होता है की इस फिल्म को बनाने के पीछे कोई राजनीतिक प्रचार का प्रभाव भी हो सकता है।

बड़े ही लुभावने स्टंट के साथ एक अद्भुत शो के रूप में शुरू होती है एक कहानी जो चंद मिनटों में बिखर जाती है। फिल्म को सही मायने में जामवाल ने ही अपने कंधों पर चलाया है और उन्ही की अदाकारीे हमें कमांडो 2 को देखने में मजबूर करता है। फिल्म में जामवाल के अलावा कोई भी पात्र हमें नहीं लुभाता और उनकी कोशिश में ऐसी कोई ख़ास बात नहीं दिखाई देती। गृह मंत्री की हीरो बख्तावर ने पूरी फिल्म में किसी प्रकार के अभिव्यक्ति नहीं दिखाई। भावना रेड्डी की 'हैदराबादी हिंदी' को सुनकर देखने वाले में गुस्से के आलावा कोई और भावना नहीं उत्पन्न होती है। सतीश कौशिक, शेफाली शाह और सुहैल नैयर का किरदार ठीक ठाक है और अच्छे कलाकार होने के बावजूद उन्हें परदे पर ज़्यादा देखने का अवसर नहीं मिल पाता।

स्टंट और एक्शन के आलावा इस फिल्म में कोई भी ऐसी ख़ास बात या अदा नहीं है जिससे दर्शक इस फिल्म को देखने में मजबूर हो सके। अच्छे कलाकार, सुन्दर जगह और बखूबी स्टंट होने के बावजूद, निर्देशक और लेखक ने इस कहानी का स्तर नीचे गिराया है।

हमें लगता है की इस कहानी की और समीक्षा करने की ज़रूरत नहीं है। पर यह कहना आवश्यक है की जामवाल जैसे अप्रतिम कलाकार को फिल्मों में ज़्यादा देखना लोग ज़रूर पसंद करेंगे। आशा करते हैं की बॉलीवुड ने निर्देशकों को इनकी क्षमता का जल्द ही अंदाजा होगा।

रेटिंग: 1.5/5

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