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मुझे राजनीति में जाना होता तो जेल नहीं जाताः संजय दत्त


मुझे राजनीति में जाना होता तो जेल नहीं जाताः संजय दत्त
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एक ऐसा एक्टर जिसकी निजी लाइफ किसी फिल्मों की कहानियों से कम नहीं है। लोगों ने कभी इसे नशेड़ी कहकर बुलाया तो कभी देशद्रोही। 5 साल की सजा काटने के बाद भी यह इंसान टूटा नहीं और नाही कभी हार मानी। तमाम उतार चढ़ाव के बाद एकबार फिर इसने नए सिरे से अपनी जिंदगी की कहानी लिखनी शुरु कर दी है। जी हां हम बात कर रहे हैं बॉलीवुड के संजू बाबा यानी संजय दत्त की। जिसकी 22 सितंबर को आगामी फिल्म भूमि रिलीज हो रही है। जेल से बाहर आने के बाद संजय ने एक बार फिर नए अंदाज में फिल्मों में काम करना शुरु कर दिया है। फिल्म की रिलीज से पहले हमने संजय दत्त से खास मुलाकात की। इस मुलाकात में उन्होंने जेल की सच्चाई, कैदी की परिस्थिति से लेकर तमाम वो बातें बताई जो शायद हम नहीं जानते होंगे। साथ ही उन्होंने बॉलीवुड के बदलते स्वरूप पर नजर डालते हुए भूमि पर भी बात की।  


जेल के अनुभव और जेल परिस्थिति?

जेल की परिस्थिति में 100 फीसदी नहीं 1000 फीसदी सुधार की जरूरत है। वहां पर बोर्ड तो लगा है सुधारना पुर्वसन का पर पर चार सालों में मैंने नाही मैंने किसी को सुधरते देखा और नाही पुनर्वसन। जेल में जो भी कैदी हैं उनमें से 90 फीसदी लोगों ने गुस्से में आकर क्राइम किए हैं। वहीं 10 फीसदी हार्डरकोर हैं, इसे मैं भी मानता हूं। सुधारना पुनर्वसन का मतलब है कि कैदी को सुधरने का मौका मिले। उसे परिवार से मिलने का मौका दिया जाए। गलती के लिए तो वो सजा काट ही रहे हैं। परिवार से मिलेंगे तो और सुधार आएगा।

आगे उन्होंने कहा कि यरवड़ा जेल में एक नाटक कंपनी भी है और उनके परफॉर्मेंस को देख कर मैं अचंभित हो गया था। मेरा मानना है कि ऐसे लोगों को सुधरने का मौका मिले। उसी नाटक कंपनी में एक नाटक ग्रुप भी था जिसमें 50 लोग थे और सभी पर मर्डर के मामले दर्ज थे। मैं उनका टीचर था और उन्हें एक्टिंग सिखाता था। वे इतना बेहतरीन परफॉर्म करते थे कि मैं खुद हिल जाता था। एक बार जेल में ड्रेस रिहर्सल हुई थी उस दौरान उनकी परफॉर्मेंस देखकर जेल के सभी स्टाफ ने खड़े होकर तालियां बजाई जिसे देखकर वे 50 लोग मेरे सामने रोने लगे और कहने लगे कि पहली बार हमारे लिए किसी ने खड़े होकर ताली बजाई है। इसका मतलब यही है कि वे अच्छा काम करना चाहते हैं। तो इसे सुधारना पुनर्वसन कहते हैं ना कि किसी अपराधी को डंडा मारना। यह सब तो ब्रिटिशों के जमाने में होता था।

 

जेल में जाने के बाद निराशा ने घेरा? 

बिल्कुल शुरु के दो महीने तक में निराशाओं में घिरा रहा। उसके बाद मेरे पास समय था मैंने अपने शास्त्र पढ़ना शुरु किए। महभारत, श्रीमद् भगवत गीता, रामायण, शिव महापुराण, गणेश पुराण, ऋग्वेद, यजुर्वेद आदि पढ़े। अब जब भी घर पर हवन होता है, तो मैं पंडित जो को बोलता हूं ऐसे लीजिए (हंसते हुए)।


जेल में जो पैसे कमाए, उनका का क्या किया?

जेल में मेहनत करके जो भी मैंने पैसे कमाए थे वह अपनी पत्नी मान्यता को आकर दे दिए थे। उन्होंने आज भी वे पैसे संभालकर रखे हैं। मैंने ये पैसे पेपर बैग और कुर्सियां बनाकर कमाए थे।


आपकी सच्चाई और अच्छाई का कभी किसी ने गलत फायदा उठाया?

यह तो दुनियां का दस्तूर है कि लोग दूसरों की सच्चाई और अच्छाई का फायदा उठाते ही हैं। पर मुझे लोगों का बुरे वक्त में भी साथ भी मिला है।


1994 में जेल से बाहर आए तो आतिश अब भूमि से वापसी, कौन सी ज्यादा डिफिकल्ट?

डिफिकल्ट की बात नहीं है, समय की बात है एक लंबी जर्नी है। उस समय में काफी यंग था, अब 50 से ऊपर का हो गया हूं। आतिश एक एक्शन फिल्म थी पर यह एकदम अलग इमोशनल फिल्म है। इसमें रिश्तों और संस्कारों की अहमियत है।


आप अपनी पर्सनल और प्रोफेशलन लाइफ के बारे में अक्सर खुलकर बात करते हैं। इतना आत्मविश्वास कहां से आता है?

दरअसल में चाहता हूं कि आज कि युवा पीढ़ी किसी भी नशे की लत का शिकार ना हो। सभी लोग देश के कानून के हिसाब से चलें। चाहे कुछ भी होने दो। एक छोटी सी गलती से इंसान क्या से क्या बन जाता है। अपनी गलती से आप तो सफर करते ही हैं, साथ ही आपका परिवार भी आपकी गलतियों के लिए सजा भुगतता है। इसीलिए मैं अपनी जिंदगी से जुड़ी कोई भी चीज नहीं छिपाता हूं।


भूमि को करने की वजह?

मुझे भूमि की स्क्रिप्ट ही बहुत रोचक लगी। स्क्रिप्ट ने मेरे दिल को छू लिया था। इस फिल्म में रिश्ते और संस्कार के मायने दिखते हैं। यह फिल्म समाज को एक बहुत अच्छा संदेश देगी। यह वजह थी इसमें काम करने की।


लंबे अरसे के बाद सेट पर पहला दिन कैसा रहा?

लंबे अरसे के बाद जब सेट पर पहुंचा तो अंदर से बहुत खुशी हुई। कैमरा यूनिट, लाइट्स देखकर काफी सुकून मिला। मैंने ओमंग (डायरेक्टर) से कहा मुझे 10 मिनट के लिए सेट पर अकेले बैठने का टाइम दो। सेट पर थोड़ा बैठने के बाद मैंने शॉट दिया।


निजी जिंदगी का अनुभव फिल्म में काम आया?

स्क्रिप्ट में लिखा होता है बेटी कैसी होगी, बेटा कैसा होगा, कहां रहेंगे क्या इंसिडेंट होगा। वह स्क्रिप्ट पर निर्भर करता है। मैंने यह सोचकर फिल्म नहीं की थी कि जितना में प्यार अपनी बेटी से करता हूं वहीं स्क्रीन पर दिखा दूंगा। पर मैं ये मानता हूं कि जितना हम फिल्म में बाप-बेटी का प्यार देखते हैं उतना ही हर बाप अपनी बेटी को प्यार करता है।


राजनीति में आने का विचार?

नहीं मैं राजनीति में नहीं आना चाहता हूं। मेरे अंदर वह बात नहीं है जो एक राजनेता में होनी चाहिए। अगर होती तो मैं जेल नहीं जाता।

पहले के बॉलीवुड से आजका बॉलीवुड कितना अलग?

काफी कुछ बदला है। उस समय इंडस्ट्री में कनेक्टिविटी थी, एकता थी। जो अब दिखाई नहीं देती। अब तो प्रोफेशनलिज्म हो गया है। पहले एक छोटा सा कागज बनता था कि तुम मेरी फिल्म में काम कर रहे हो, और हमलोग साइन कर देते थे। अब वो एक कागज का दौर गया अब तो एक मौटी पूरी फाइल बनती है। पर यह अच्छा है कि फिल्में अब 40-50 दिन में बनकर तैयार हो जाती हैं। आर्टिस्ट एक समय में एक ही फिल्म में काम करता है। जबकि पहले एक फिल्म को बनने में 2 से ढाई साल का वक्त लग जाता था। पर वो माहौल बहुत ही प्यारा माहौल था।


सोशल मीडिया को कैसे देखते हैं?

दरअसल मैं सोशल मीडिया के यूज से ज्यादा फ्रैंडली नहीं हूं। पर यह एक दूसरे से कनेक्ट होने का एक अच्छा माध्यम है।

 

किसी किरदार को निभाने की ख्वाहिश बाकी  और आपका अभी तक का फेवरेट किरदार?

नहीं मैं खुश हूं। मुन्ना भाई, सड़क, साजन, खलनायक, वास्तव और अग्नीपथ के किरदार मेरे दिल के काफी करीब हैं। बाप रे अग्नीपथ को देखकर मैं ही डर जाता हूं।    


जीवन में बड़े उतार चढ़ाव, अगली सुबह के लिए प्रेरणा कहां से मिली?

भोलेनाथ मेरे प्रेरणा स्त्रोत हैं। उन्होंने मुझे आशिर्वाद दिया, सब्र दिया, शक्ति दी। मेरी फैमिली ने हमेशा मेरा साथ दिया, सपोर्ट किया। मेरी पत्नी ने मेरा बहुत साथ दिया। और पूरे देशवासियों का मुझे सपोर्ट मिला। मुझे हर दिन कमसे कम 50-60 लेटर जेल में आते थे। ये सिलसिला कभी खतम ही नहीं हुआ, जब तक में जेल में था तब तक लेटर आते ही रहे।

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