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ज़िन्दगी के प्रति आशावान बनाती ‘डियर ज़िंदगी’


ज़िन्दगी के प्रति आशावान बनाती ‘डियर ज़िंदगी’
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हम सभी की जिंदगी जितनी आसान दिखती है, उतनी होती नहीं है। हम सभी की उलझनें हैं, ग्रंथियां हैं, दिक्कतेंं हैं...हम सभी पूरी जिंदगी उन्हें सुलझाते रहते हैं। खुश रहने की कोशिश करते हैं। अनसुलझी गुत्थियों से एडजस्ट कर लेते हैं। बाहर से सब कुछ शांत, सुचारू और स्थिर लगता है, लेकिन अंदर ही अंदर खदबदाहट जारी रहती है। किसी नाजुक क्षण में सच का एहसास होता है तो बची जिंदगी खुशगवार हो जाती है। गौरी शिंदे की ‘डियर जिंदगी’ क्याजरा उर्फ कोको की जिंदगी में झांकती है। क्यारा अकेली ऐसी लड़की नहीं है। अगर हम अपने आसपास देखें तो अनेक लड़कियां मिलेंगी। वे सभी जूझ रही हैं। अगर समय पर उनकी भी जिंदगी में जहांगीर खान जैसा ‘दिमाग का डाक्टकर’ आ जाए तो शेष जिंदगी सुधर जाए।
हिंदी फिल्मों की नायिकाएं अब काम करने लगी हैं। उनका एक प्रोफेशन होता है। क्यारा उभरती सिनेमैटोग्राफर है। वह स्वतंत्र रूप से फीचर फिल्म शूट करना चाहती है। उसे रघुवेंद्र से आश्वासन मिलता है। संयोग कुछ ऐसा बनता है कि वह स्वयं ही मुकर जाती है। मानसिक दुविधा में वह अनिच्छा के साथ अपने मां-बाप के पास गोवा लौटती है। गोवा में उसकी मुलाकात ‘दिमाग के डॉक्टर' जहांगीर खान से होती है। अपनी अनिद्रा के इलाज के लिए वह मिलती है तो बातचीत और सेशन के क्रम में उसके जीवन की गुत्थियों की जानकारी मिलती है। जहांगीर खान गुत्थियों की गांठों को ढीली कर देता है। उन्हें वह खुद ही खोलती है। गुत्थियों को खोलने के क्रम में वह जब मां-बाप और उनके करीबी दोस्तों के बीच गांठ पर उंगली रखती है तो सभी चौंक पड़ते हैं।
हमें क्यारा की जिंदगी के कंफ्यूजन और जटिलताओं की वजह मालूम होती है और गौरी शिंदे धीरे से पैरेंटिंग के मुद्दे को ले आती हैं। करिअर और कामयाबी के दबाव में मां-बाप अपने बच्चों के साथ ज्यादतियां करते रहते हैं। उन्हें पता ही नहीं चलता और वे उन्हें किसी और दिशा में मोड़ देते हैं। उनके कंधों पर हमेशा अपनी अपेक्षाओं का बोझ डाल देते हैं। बच्चेे निखर नहीं पाते। वे घुटते रहते हैं। अपनी जिंदगी में अधूरे रहते हैं। कई बार वे खुद भी नहीं समझ पाते कि कहां चूक हो गई और उनके हाथों से क्या-क्या फिसल गया? ‘डियर जिंदगी’ पैरेंटिंग की भूलों के प्रति सावधान करती है। क्याारा की निजी (इस पीढ़ी की प्रतिनिधि) समस्या तक पहुंचने के लिए गौरी शिंदे लंबा रास्ता चुनती हैं। फिल्म यहां थोड़ी बिखरी और धीमी लगती है। हम क्यारा के साथ ही उसके बदलते दोस्तोंं सिड, रघुवेंद्र और रुमी से भी परिचित होते हैं। उसकी दो सहेलियां भी मिलती हैं। क्यारा को जिस परफेक्ट की तलाश है, वह उसे नहीं मिल पा रहा है। इसके पहले कि उसके दोस्त उसे छोड़ें, वह खुद को समेट लेती है, काट लेती है।
शाहरुख खान अपनी प्रचलित छवि से अलग साधारण किरदार में सहज हैं। उनका चार्म बरकरार है। वह अपने अंदाज और किरदार के मिजाज से आकर्षक लगते हैं। ऐसे किरदार लोकप्रिय अभिनेताओं को अभिनय का अवसर देते हैं। शाहरुख खान इस अवसर का लाभ उठाते हैं। आलिया भट्ट अपनी पीढ़ी की समर्थ अभिनेत्री के तौर पर उभर रही हैं। उन्हें एक और मौका मिला है। क्यारा के अवसाद, द्वंद्व और महात्वाकांक्षा को उन्होंने दृश्यों के मुताबिक असरदार तरीके से पेश किया है। लंबे संवाद बोलते समय उच्चारण की अस्पष्टता से वह एक-दो संवादों में लटपटा गई हैं। नाटकीय और इमोशनल दृश्यों में बदसूरत दिखने से उन्हें डर नहीं लगता। सहयोगी भूमिकाओं में इरा दूबे, यशस्विनी दायमा, कुणाल कपूर, अंगद बेदी और क्यारा के मां-पिता और भाई बने कलाकारों ने बढि़या योगदान किया है।

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